Wednesday, December 27, 2006

है हमें विस्तार की जरूरत....

आज बहती हर तरफ़ है
प्रेम की ख़लिश* बयार
और ख़ालिस** प्रेम तो
माँगे विशुद्ध भाव यार
संग प्रीति प्रेम की सीमा असीमित
संग भीति हुआ है लघु और सीमित
पत्नि बनी है प्रेम की परिधि यहाँ पर

भोग अर्जन अब हुआ परिवार सीमित
है हमें विस्तार की जरूरत
यह सुकुड़ते प्रेम का युग है

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बस नाम के ही प्रेम हैं मिलते यहाँ पर

मिलता नहीं कोई रामसेवक और कर्मवीर यहाँ

नाम से छोटे हुए हैं आज मेरे कर्म भी
है हमें संस्कार की जरूरत
यह सिमटते धर्म का युग है

*ख़लिश=चुभन
**ख़ालिस=खरा

Thursday, December 21, 2006

नया साल....एक मुक्तक

आइये नया साल धूमधाम से मनायें
राष्ट्र के प्रति अपना समर्पण दोहरायें
स्वार्थ, अन्याय, एवं गरीबी को हरायें
संवेदनशील एवं भावपूर्ण जीवन अपनायें

Tuesday, December 12, 2006

दस्तक दे रहा है नया साल......

दस्तक दे रहा है नया साल
और पुराना कह रहा है अलविदा

एक ओर जश्न की पूरी तैयारी है
टंकी भर ली है और डिस्को बुक कर ली है
दूसरी ओर किसान चढ़े हैं पानी की टंकी पर
ज़िन्दग़ी को ही दाव पर लगाते

कर्ज माफ़ी की गुहार और अपनी व्यथा से सरकार को अवगत कराते
इधर टीवी पर भी नये साल की पूरी तैयारी है
सब कुछ बेचने के बाद अब अंतरंग संबंधों की बारी है
पति पत्नी को कितना और कैसे चाहता है
गोविंदा की तरह लोग अपनी माँ से कितना प्यार करते हैं
नये साल की खुशी में इसका लाइव टेलिकास्ट किया जायेगा
महिलाओं के अपार उत्साह को देखते हुए
नये साल में टीवी सीरियल नये रूप में दिखाया जायेगा
और इसके माध्यम से पारिवारिक संबंधों में

गिरावट की नई संभावनाओं को तलाशा जायेगा

Sunday, December 10, 2006

बोगी नंबर S-8.....

छुट्टियाँ खत्म हो गई हैं
अब मुझे जाना होगा माँ
मेंने S-8 में रिजर्वेशन करा लिया है

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रत्ना अच्छा हुआ तूने फ़ोन किया
मैं कल कुछ दिनों के लिये बहन के पास जा रही हूँ
तू तो जानती है, बड़ा मन लगता है मेरा वहाँ
ले-दे के एक बहन ही तो है
पप्पू ने S-8 में रिजर्वेशन करा दिया है
स्टेशन में घुसते ही डब्बा सामने पड़ता है
रिजर्वेशन है तो दिक्कत नहीं है
दिन में बैठने को जगह मिल जाती है
रात में पेर सीधे हो जाते हैं
बड़ी अच्छी ट्रेन है, कभी लेट नहीं होती
सुरक्षित है, तड़के ही पहुँच जाऊँगी

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खबर है गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया है
एक पुराना पुल S-8 पर गिर गया है
ईश्वर ने भाग्य का यह कैसा खेल रचा
लगता है बोगी नंबर S-8 में कोई नहीं बचा

मेरे जीवन का फ़ैसला भी ऎसे ही हो सकता था
सब लोगों की ही तरह मैं भी वहाँ हो सकता था
असुरक्षित सिर्फ़ हमारा जीवन ही नहीं हुआ है

मानवीय संबंधों के प्रति हम जितने असुरक्षित हुए हैं
सुख और शान्ति से उतने ही दूर हुए हैं

Saturday, December 02, 2006

स्वाध्याय मिलन और हम...

स्वाध्याय मिलन की कुछ यादें हैं
सोचा क्यूँ ना आज इन्हें समेट लूँ
भावनाओं को शब्दों में उतार दूँ
जीवन के रेगिस्तान में
मिलन शीतल नीर सा लगा
मिलने पर आनंद और
बिछुड़ने पर पीर सा लगा
स्वार्थ कपट के इस दलदल में
मिलन कबीर की झीनी चादर
कस्तूरी की गंध से विचलित
मानव बिछड़ा अपने दल से
पर मिलने पर उसने जाना
कस्तूरी नाभी में तब से
अभी-अभी जुड़कर टूटा है
और आतुर है फ़िर जुड़ने को
पर मिलने पर उसने जाना
धीर धर्म और शील को माना
अब खुश है अपने कुनबे में
पाकर चूल्हा चक्की रोटी