Tuesday, July 31, 2007

मुझे जलाने में...

वो इतना जलते हैं
फ़िर भी राख नहीं बनते
मैं सोचकर हैरान हूँ
थोड़ा परेशान हूँ
कितना जलना पड़ता होगा उन्हें
थोड़ा मुझे जलाने में


आजकल नज़र उनकी
हमसे नहीं मिलती
हमे देखते ही वो
रास्ता बदल लेते हैं
मैं सोचकर हैरान हूँ
थोड़ा परेशान हूँ
कितना गिरना पड़ता होगा उन्हें
थोड़ा मुझे गिराने में

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर और सही लिखा है
    कितना जलना पड़ता होगा उन्हें
    थोड़ा मुझे जलाने में
    इस बात में बहुत गहराई है...

    शुक्रिया रीतेश जी आपको ज्यादा इन्तजार नही करना पड़ा हम भी कहाँ रह पाये कविता लिखे बगैर...

    सुनीता(शानू)

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  2. दोनों ही काव्यांश अपने-आप में अलग भी और समानान्तर भी लगे… परिपूर्ण!!!

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आपकी टिप्पणी और उत्साह वर्धन के लिये हार्दिक आभार....