Tuesday, September 18, 2007

अपहरण...

अभी कुछ दिन पहले
किसी अपने ने मुझसे कहा
अरे अब तो आप भी हो गये
रीतेश होशंगाबादी
मैं सोचने लगा
अब कहाँ होती है
व्यक्ति की पहचान उसके
गाँव या शहर से
उसकी पहचान
अब सिर्फ़ इससे है
की वह आदमी है या औरत
और हाँ उसकी उम्र क्या है
मेरा शहर जो
समय से पहले ही
जवान हो गया है
मुझे बूढ़ा घोषित कर चुका है
लेकिन वो यह नहीं जानते
की मैं शहर में नहीं
शहर मेरे अंदर रहता है
और जब तक ऎसा है
मेरे जैसा हर व्यक्ति
नहीं करने देगा उन्हें
अपने ही शहर की
संस्कृति का अपहरण

8 comments:

  1. ''अब कहाँ होती है
    व्यक्ति की पहचान उसके
    गाँव या शहर से'' बार- बार पढ़ने योग्य है,
    शब्द और बिंब में ग़ज़ब का तालमेल.
    बधाईयाँ ....../

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  2. अच्छा चिंतन लिखा है रीतेश हौशंगाबादी जी.बधाई. :)

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  3. शायद यही है अपने शहर से दूर रहने की तकलीफ...रितेश जी इस जितनी तारीफ की जाए कम है

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  4. रितेश जी,
    आपके प्रयास सराहनीय है और में अपने ब्लॉग पर आपका ब्लॉग लिंक कर दिया है। ऐसे ही भावपूर्ण लिखते रहो।

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  5. इन पंक्तियों में भाव-सौंदर्य देखने लयक है।
    की मैं शहर में नहीं
    शहर मेरे अंदर रहता है
    और जब तक ऎसा है
    मेरे जैसा हर व्यक्ति
    नहीं करने देगा उन्हें
    अपने ही शहर की
    संस्कृति का अपहरण
    सारी कविता अच्छी लगी।

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  6. रितेश भाई,
    यह कविता अब तक मुझसे अछूती रही???
    बात यह है कि अभी काफी व्यस्त रहता हूँ इसकारण ज्याद समय नहीं दे पाता पर आज जब यहाँ आया तो भावनाएं मेरा हाथ पकड़कर लगातार पढ़ने को इशारा देती रही…।
    अद्भुत!!!

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  7. रविन्द्र जी, लालाजी, सुबोध भाई, महावीर जी, दिव्याम भाई,

    आप सभी की टिप्पणी का हार्दिक धन्यवाद
    कृपया ऎसा ही स्नेह बनाये रखें..

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  8. बहुत अच्‍छा लि‍खते हैं। पहली बार पढ़ा़। आगे इंतजार रहेगा।

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आपकी टिप्पणी और उत्साह वर्धन के लिये हार्दिक आभार....